राष्ट्र- भाषा : गांधीवादी दृष्टिकोण

लेखक

  • Shubha Sinha

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https://doi.org/10.8224/journaloi.v73i2.957

सार

किसी भी सभ्यता के अवशेष के अवलोकन से यह तथ्य सामने आता है कि उसके व्यापक उत्कर्ष में तत्कालीन विचारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। विचारों को बल तभी मिल पाता है जब वह राष्ट्र भाषा पर आधारित हो। तात्पर्य यह कि भाषाई एकता किसी भी व्यापक उद्देश्य की प्राप्ति में सदैव अहम भूमिका निभाती रही हैं। समकालीन उपनिवेशवाद से मुक्त भारत के नवनिर्माण के माध्यम स्वरूप ' राष्ट्र भाषा' की स्वीकार्यता उतनी ही महत्वपूर्ण है।

वर्तमानकालीन हिंदी दिवस का आयोजन किया जाना एक औपचारिकता भी है और प्रतीक भी। औपचारिकता का स्वरूप तब सामने आ खड़ा हो जाता है, जब बड़े- बड़े विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग किसी आयोजित संगोष्ठी के पोस्टर अंग्रेजी में छपवाते हैं; देश के नामचीन संस्थान आजादी के दीवानों का जन्म शताब्दी समारोह ‘ बर्थ सैंटनरी सेलिब्रेशन’ या ‘ फ्रीडम वीक’ के रूप में मनाते हैं,  न कि ‘स्वतंत्रता सप्ताह'के रूप में ।

वस्तूतः किसी भी देश/ राजनीतिक व्यवस्था की भौगोलिक सीमाओं से जहां नागरिकों के शासकीय एकता में बंधे होने का अहसास होता है वहीं भाषाई एकता से परस्पर सौहार्द पूर्ण वैचारिक आदान-प्रदान होता है जो व्यक्तियों में भावनात्मक एकता का संचार करती है। अर्थात भाषाई एकता व्यक्तियों को सही मायने में राष्ट्रीय एकता एवं सांझी सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक आकांक्षाओं को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती है।

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Shubha Sinha

Associate Professor, Political Science, Shyama Prasad Mukherji College, University of Delhi.

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प्रकाशित

2025-11-03

अंक

खंड

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