भारतीय ज्ञान परंपरा में ईशावास्योपनिषद् की प्रासंगिकता: एक दार्शनिक पुनरीक्षण
DOI:
https://doi.org/10.8224/journaloi.v73i1.487Keywords:
उपनिषद्, विद्या, संभूति, ज्ञान, आत्मतत्त्व, अमृतत्त्व, कर्मAbstract
शुक्लयजुर्वेदीय ईशावास्य उपनिषद् वस्तुत: शुक्ल यजुर्वेद सांहिता का ही मूल चालीस मंत्रों का अध्याय है। मन्त्रभाग का मूल अंश होने के कारण अन्य उपनिषदों की अपेक्षा इसका अधिक महत्त्व है। भारतीय ज्ञान परम्परा में उपनिषद्-गणना का जो सामान्यक्रम प्रचलित है, उसमें भी अपने विशेष महत्व के कारण इसे प्रथम स्थान पर रखा गया है। इस उपनिषद् का सर्वलोक प्रिय मन्त्र है- ‘ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च जगत्यां जगत्।
तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा मा गृध: कस्य स्विद्धनम्’।। यह मंत्र जड़-चेतन स्वरूप दृष्टिगोचर जगत् के प्रत्येक कण में ईश्वर की विद्यमानता को उपस्थापित करता है। इसके फलस्वरूप यह मंत्र इस जगत् में त्याग भाव से केवल कर्तव्यपालन की दृष्टि से ही विषयों का यथाविधि उपभोग करने के लिए प्रेरित करता है। सामग्री की दृष्टि से प्रथम तीन मन्त्रों में ही सूत्र रूप में समग्र विषय का प्रतिपादन हो गया है। द्वितीय मन्त्र में मनुष्यत्व के लिए कर्मनिष्ठा का उपदेश है कि मनुष्य को इस जगत् में कर्म करते हुए सौ वर्ष तक जीने की इच्छा करनी चाहिए, किन्तु कृतकर्मों में निर्लिप्त भाव होना चाहिए- ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतंसमा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे’॥ इस उपनिषद् का षष्ठ एवं सप्तम मंत्र समस्त प्राणियों को आत्मानुभूति के माध्यम से सभी के प्रति करुणा एवं प्रेम भाव रखने के लिए प्रेरित करता है। तदनन्तर विषय विवेचन की दृष्टि से आत्मशून्य, अज्ञ जन की निन्दा, आत्मतत्त्व की असीम सत्ता, अनन्तरूपता, सर्वव्यापकता का प्रतिपादन करते हुए सर्वात्मभावना का फल बताया गया है। पुनः विद्या और अविद्या, सम्भूति एवं असम्भूति की उपासनाओं के समुच्चय और उससे प्राप्त होने वाले अमृतत्व का उपदेश दिया गया है। प्रायः सभी आचार्यों, व्याख्याकारों एवं आधुनिक विद्वानों ने ईशोपनिषद् की प्रतिष्ठा ज्ञान एवं कर्म के समन्वय-उपदेश के रूप में मानी है। आदि शंकराचार्य ने इसमें ज्ञाननिष्ठा एवं कर्मनिष्ठा का पृथक्तया प्रतिपादन माना है। सर्वपल्ली डॉ. राधाकृष्णन के अनुसार ब्रह्म एवं जगत् की एकता का उपदेश इस उपनिषद का मुख्य विषय है। महान् चिन्तक महर्षि अरविन्द के अनुसार, न केवल ज्ञान और कर्म, अपितु अनेक विरोधी विचारों का समन्वय प्रस्तुत करना इस उपनिषद् का प्रमुख सिद्धान्त है। ईशोपनिषद् एकत्वभाव की प्रतिष्ठा करने वाली और अनेक द्वन्दों का समन्वय करने वाली उपनिषद् है, जिस पर आधारित होकर भारतीय दर्शन के अनेक प्रमुख सिद्धान्तों की परिकल्पना और अवधारणा प्रतिष्ठित है। भारतीय आत्मविद्या एवं ज्ञान परंपरा की प्रतिष्ठा के लिए इस उपनिषद् का सर्वातिशायी महत्त्व रहा है। विषय-वस्तु के साथ-साथ पठन-रचना की दृष्टि से यह महनीय उपनिषद् भारतीय ज्ञान परंपरा को समृद्ध करता है। इसी को दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत शोध आलेख का उद्देश्य भारतीय ज्ञान परंपरा में ईशावास्य उपनिषद् की महत्ता को रेखांकित करना एवं इसके बहुआयामी दार्शनिक स्वरूप को प्रकाशित करना है।