ध्रुपद गायन शैली-एक विवेचनात्मक अध्ययन
DOI:
https://doi.org/10.8224/journaloi.v70i2.349Abstract
ध्रुपद गायन को ख्याल से पहले उत्तर भारत में अधिक प्रतिष्ठित गायन शैली माना जाता था। गीत का यह प्रकार, मध्य युग से आज तक बराबर प्रचलित है। इसमें स्वर, लय तथा साहित्य, इन तीनों अंगों का समुचित संयोग अपेक्षित होता है। भरत काल में इस शैली का प्राचीन रूप ध्रुवपदों प्रचलित रहा है। (1) उस समय, ध्रुपद नाटक का गीतांग होकर प्रधान बना हुआ था। भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र ग्रंथ के 32 वें अध्याय में की विस्तृत रूपरेखा के आधार पर यह माना है कि प्राचीन समय में नाटकों के आदि और अंत में ध्रुपदों का गायन प्रचार में था।
शारंगदेन द्वारा रचित "संगीत रत्नाकर" ग्रंथ में ध्रुव नामक प्रबंध की चर्चा की गई है। प्रबंध में गाए जाने वाले पद, ध्रुपद कहलाते थे अर्थात् ध्रुपद नामक गायन शैली प्राचीन काल से भारत में प्रचलित रही है, उसका मार्ग कुछ खण्डित व अवरूद्ध सा हो गया था। मध्ययुग में जिसे नवीन मार्ग प्राप्त हुआ। ऐसा माना जाता हैकि राजा मानसिंह तोमर और बैजू के प्रयत्नों से ध्रुपद का वह मार्ग पुन: खुल गया जो शताब्दियों से अवरूद्ध सा हो गया था।(2)