हिंदी कहानियों में अभिव्यक्त विकलांग मनोविज्ञान
DOI:
https://doi.org/10.8224/journaloi.v73i3.237Abstract
मानव समाज ने अपने भीतर तमाम विविधताओं को समाहित किया है। समाज के इस ताने-बाने में कई ऐसे वर्ग दिखाई देते हैं, जिनका विकास मानव समाज के विकास के बरक्स अवरुद्ध दिखाई देता है। इन्हीं वर्गों में विकलांग वर्ग समाज के सबसे अंतिम पायदान पर नजर आता है। विकलांगता मानव जीवन की एक अपरिहार्य सच्चाई है। जब कोई व्यक्ति जन्म से अथवा जन्म के बाद किन्हीं कारणों के तरह शारीरिक, मानसिक अथवा स्तर पर आंशिक अथवा पूर्ण रूप से किसी कार्य को संपादित करने में समर्थ नहीं होता तब ऐसी स्थिति विकलांगता कहलाती है। समाज विकलांगजनों के प्रति आरंभ से ही नकारात्मक रहा है। सदियों के अन्याय एवं अनवरत शोषण के बाद कुछ हद तक आधुनिककाल में और व्यापक स्तर पर उत्तर-आधुनिक युग में इनकी पीड़ा को अनेक रूपों में वाणी मिली और इनसे जुड़े जरूरी सवालों ने विमर्श के गलियारे में कुछ जगह हाँसिल की। उपेक्षित व वंचित समाज को साहित्य ने संवेदना की भूमि प्रदान कर उनकी वेदना को हमेशा से समझने का प्रयास किया है। विकलांगों की दृष्टि से यदि हिंदी साहित्य पर गौर करें तो बहुत कम रचनाकार इस तरफ रचनारत डिकाही पड़ते हैं। इस शोध-आलेख का उद्देश्य है हिंदी कहानियों में अभिव्यक्त विकलांगों के मनोविज्ञान को समझना, समाज की मानसिकता का विकलांगों के मनोविज्ञान पर पड़ने वाले प्रभावों का विवेचन करना।